मूर्ख बनने या बनाये जाने वाले को तो पता ही नहीं चलता कि वो मूर्ख बन अथवा बनाया जा रहा है। जा़हिर है कि अगर पता ही हो तो फिर मूर्ख बने ही क्यों, आख़िर उल्लू बनना कोई अच्छी बात तो है नहीं।
फि़र एक अरसे बाद इन मूर्खों में से जो थोड़े कम मूर्ख होते हैं उन्हें एहसास होता है कि मूर्ख बनाया गया। वो इस सत्य को स्वीकार कर लेते हैं, और फ़िर अपने व्यव्हार और विचार में परिवर्तन लाने की कोशिश करते हैं.
बाकी बचे मूर्खों में से कुछ तो ऐसे होते हैं जिनका धरती पर जन्म ही मूर्ख बनने के लिये होता है। ईश्वर ने इन्हें सोचने की क्षमता तो दी है पर ये हमेशा दूसरों की सोच पर निर्भर रहते हैं। और इनकी खासियत तो यही होती है की जो इन्हें मूर्ख बनाए वही इन्हें सर्वाधिक प्रिय होता है.
सबसे बड़ा तबका उन मूर्खों का होता है जिन्हें अरसे बाद पता तो होता है कि मूर्ख बना दिये गये, पर शर्म से स्वीकार नहीं पाते या यूँ कहिये Inertia of Emotion. और यथावत मूर्ख बनते या बने रहते हैं। और इस से कहीं आगे बढ़ कर अपने मूर्ख बन्ने की वास्तविकता को अस्वीकार करने करवाने के लिए विचित्र तर्क वितर्क करते रहते हैं.
एक धूर्त राजनेता ऐसे ही व्यक्तियों का लाभ लेता है, और ये व्यक्ति समूह उसका आत्मविश्वास बढ़ाता रहता है।
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