Thursday 22 February 2018

कुल्हाड़ी की खीर

जंगल में लकड़ी काटते काटते काफी देर हो गयी. अब लकड़ हारे को घर लौटना मुश्किल जान पड़ता था.
 रात अँधेरी थी, जंगली जानवरों का भी डर था, जंगल से बाहर निकलना मुश्किल था. लकड़ हारा काफी उलझन में था, रात कैसे कटेगी?
 इतने में उसे दूर एक टिम-टिमाती रौशनी दिखाई दी. पास पहुँच कर लकड़ हारे ने देखा की एक झोपडी थी. दरवाज़े तक पहुँच कर उसने जोर से आवाज़ दी, बार बार आवाज़ देने पर एक बुढ़िया निकल कर आई और बड़ी बेरुखी से पूछा- क्या है?
 लकड़ हारा- माई जंगल में भटक गया हूँ, सुबह तक सर छिपाने के लिए जगह चाहिए.
 बुढ़िया- जगह तो मिल जायेगी पर खाने के लिए कुछ भी नहीं मिलेगा और माँगना भी नहीं.
 लकड़-हारा- नहीं नहीं सिर्फ रात काटने के लिए जगह चाहिए.
 बुढ़िया ने उसे अन्दर आने को कहा और एक कोने में जगह बता दी जहां वो लकड़-हारा बैठ गया.
 झोपडी में एक छोटा सा चूल्हा जल रहा था, कुछ देर बाद बुढ़िया ने उस पर अपने लिए खिचड़ी पकाना शुरू कर दिया.
 लकड़-हारे को भी जोरों की भूख लगी थी, सो वो ललचाई नज़रों से उस और देखने लगा.
 बुढ़िया- मैंने पहले ही कहा था की खाने के लिए कुछ नही मिलेगा.
 लकड़-हारा- नहीं नहीं मैं कुछ नहीं मांगूंगा.
 थोड़ी देर में बुढ़िया खिचड़ी खाने लगी और फिर सोने की तैयारी में लग गयी.
 लकड़-हारा- माई चूल्हा अगर खाली है तो मैं भी खीर बना लूं?
 बुढ़िया- खीर? मैंने कहा न की खाने के लिए कुछ नहीं मिलेगा.
 लकड़-हारा- माई कुछ नहीं मांगूंगा, कुल्हाड़ी की खीर बनाऊंगा.
 बुढ़िया- कुल्हाड़ी की खीर?
 लकड़-हारा- हाँ हाँ कुल्हाड़ी की खीर. बस एक पतीला दे दो.
 बुढ़िया ने उसे एक पतीला दे दिया और कौतूहल वश वहीँ पास में बैठ गयी.
 लकड़ हारे ने अपनी कुल्हाड़ी का लकड़ी का हत्था निकाल दिया, और लोहे वाले हिस्से को पतीले में डाल कर चूल्हे पर रख दिया.
 कुछ वक़्त बीतने के बाद बुढ़िया परेशान होने लगी.
 बुढ़िया- कब बनेगी तेरी कुल्हाड़ी की खीर? देर हो रही है, मुझे सोना भी है.
 लकड़-हारा- वैसे तो खीर ठीक ही बन रही है, लेकिन अगर तू चाहती है की जल्दी बन जाए तो थोडा सा पानी ला दे, की मैं इस पतीले में डाल दूं.
 बुढ़िया बड़े अन्मने ढंग से उठ कर पानी लाने चली गयी.
 पतीले में पानी डालने के बाद लकड़-हारा फिर वैसे ही बैठ गया.
 थोडा समय और बीता, अब बुढ़िया के सब्र का बाँध टूटने लगा.
 बुढ़िया- अब तो पानी भी डाल दिया, कब बनेगी तेरी खीर?
 लक्कड़-हारा- माई खीर तो ठीक ही बन रही है लेकिन तू अगर चाहती है जल्दी बने तो इसमें थोडा चावल डाल दे.
 बुढ़िया ने सोचा की देखती हूँ ये कैसे खीर बनाएगा, तो उसने थोडा चावल ला कर पतीले में डाल दिया.
 अब फिर दोनों पतीले के पास बैठे रहे.
 बुढ़िया परेशान होने लग गयी.
 बुढ़िया- अरे! कब बनेगी तेरी खीर?
 लकड़-हारा- वैसे तो खीर ठीक ही बन रही है, लेकिन अगर तू चाहती की जल्दी बने तो इसमें थोडा दूध डाल दे.
 बुढ़िया के पास थोडा ही दूध बचा था, सो उस ने पूरा पतीले में डाल दिया.
 अब फिर दोनों पतीले के पास बैठ गए.
 बुढ़िया को अब गुस्सा आने लगा था, उसने फिर पूछा.
 बुढ़िया- कब बनेगी तेरी खीर? अब मैं रौशनी बुझा कर सोने जा रही हूँ.
 लकड़-हारा- माई खीर ठीक ही बन रही है, लेकिन अगर तू चाहती है की और जल्दी बने तो बस थोड़ी सी चीनी ला दे फिर खीर तुरंत बन जायेगी.
 बुढ़िया ने सोचा जब सब कुछ दिया तो चीनी भी दे देती हूँ.
 लकड़-हारे ने भी एक एक कर बुढ़िया से सब कुछ ठग ही लिया, खीर भी तैयार हो गयी.
 खीर खा कर लकड़-हारा आराम से सो गया.
 बुढ़िया को रात भर नींद नहीं आयी.
 सुबह देखा तो लकड़-हारा गायब था.
 
इस कहानी में बुढ़िया और लकड़-हारा दोनों प्रतीक हैं.
 बुढ़िया प्रतीक है देश की जनता की जो अपने को बहुत बुद्धिमान समझती है लेकिन बार बार लकड़-हारे से ठगी जाती है.
 लकड़-हारा प्रतीक है यहाँ के एक मंझे हुए नेता का- कुटिल, बेईमान, बेशर्म. जो बार बार किसी न किसी रूप में किसी न किसी अवतार में आ ही जाता है जनता को ठगने,  .....................................

Saturday 3 February 2018

The Inertia of Emotion.

         मूर्ख बनने या बनाये जाने वाले को तो पता ही नहीं चलता कि वो मूर्ख बन अथवा बनाया जा रहा है। जा़हिर है कि अगर पता ही हो तो फिर मूर्ख बने ही क्यों, आख़िर उल्लू बनना कोई अच्छी बात तो है नहीं।

फि़र एक अरसे बाद इन मूर्खों में से जो थोड़े कम मूर्ख होते हैं उन्हें एहसास होता है कि मूर्ख बनाया गया। वो इस सत्य को स्वीकार कर लेते हैं, और फ़िर अपने व्यव्हार और विचार में परिवर्तन लाने की कोशिश करते हैं.

बाकी बचे मूर्खों में से कुछ तो ऐसे होते हैं जिनका धरती पर जन्म ही मूर्ख बनने के लिये होता है। ईश्वर ने इन्हें सोचने की क्षमता तो दी है पर ये हमेशा दूसरों की सोच पर निर्भर रहते हैं। और इनकी खासियत तो यही होती है की जो इन्हें मूर्ख बनाए वही इन्हें सर्वाधिक प्रिय होता है.

सबसे बड़ा तबका उन मूर्खों का होता है जिन्हें अरसे बाद पता तो होता है कि मूर्ख बना दिये गये, पर शर्म से स्वीकार नहीं पाते या यूँ कहिये Inertia of Emotion. और यथावत मूर्ख बनते या बने रहते हैं। और इस से कहीं आगे बढ़ कर अपने मूर्ख बन्ने की वास्तविकता को अस्वीकार करने करवाने के लिए विचित्र तर्क वितर्क करते रहते हैं.

एक धूर्त राजनेता ऐसे ही व्यक्तियों का लाभ लेता है, और ये व्यक्ति समूह उसका आत्मविश्वास बढ़ाता रहता है।