Monday 7 November 2016

जब मौज़र में एक आखिरी गोली बच गयी थी.........................................


ऑफिस जाते वक़्त जब वो शहर की मुख्य सड़क से गुज़र रहा था , उस ने अपनी बायीं और कुछ देखा, उसकी नज़रें कुछ देर वहीँ ठहर गयीं.

कल किसी ने आत्महत्या कर की थी, टेलीविज़न पर कल से ही ये खबर छाई हुई है, और आज अखबारों में.

किसी की नज़र में आत्महत्या बुजदिली है, कायरता है, कह तो ऐसे रहे हैं जैसे इन्होंने कितनी दफा आत्महत्या कर डाली हो. चंद्रशेखर आज़ाद, हिटलर शायद बुजदिल ही रहे हों. जब मौज़र में एक आखिरी गोली बच गयी थी तब आज़ाद को कायरता से अपने आप को गोली नहीं मारनी थी, बल्कि उन्हें तो बहादुरी से आत्मसमर्पण करना चाहिए था.

सड़क के बायीं ओर कचरे का अम्बार लगा हुआ है, दो गायें, सात-आठ कुत्ते और एक वृद्ध मनुष्य सा दिखने वाला प्राणी सब के सब इस कचरे के ढेर से कुछ न कुछ खा रहे हैं.

सबसे पहले तो शहर के बीचोबीच कचरे का इतना बड़ा अम्बार अपने आप में एक हैरत की बात है, उस से भी बड़ी हैरत की बात है की ७० वर्षों की कल्याणकारी सरकार के बावजूद एक मनुष्य को जानवरों के साथ स्पर्धा कर कचरे में से खाने को ढूंढ कर खाना पड़ रहा है.

वो भी महसूस कर रहा है अब अपनी गाडी में बैठे की टीवी वाले सही कह रहे थे असली हिम्मत तो ये है, जानवरों से भी बदतर ज़िन्दगी जीने में.

जिसका जीवन भोग विलास में कट रहा हो वो मरना नहीं चाहता, ये बात तो समझ आती है, पर जानवरों सी ज़िन्दगी गुज़र करता एक वृद्ध भी मरना नहीं चाहता, ये बात कुछ समझ नहीं आती. शायद बुजदिलों वाले काम करने से डरता हो.

बात अब साबित हो गयी आत्महत्या कायरता एवं बुजदिली है, लेकिन अच्छी बात ये है की कुल जनसंख्या का एक बेहद छोटा हिस्सा ही बुजदिल या कायर होता है, बाकी सब बहादुर हैं, उस वृद्ध की तरह.

लेकिन ये क्या उस के मन में फिर से संदेह पैदा हो गया. आत्महत्या बुजदिली है या कायरता है, ये तो यकीन से वही बता सकता है जिसने इसका सफल प्रयास किया हो.

चलो ढूंढते हैं एक ऐसा शख्स.