Saturday 12 March 2016

प्लेटफोर्म न. २


“प्लेटफोर्म नंबर २ पर आयेगी!” पूछ-ताछ खिडकी पर बैठे अधेड़ उम्र के आदमी ने कहा, उसने अपने वज़न बराबर या उस से अधिक कपडे पहन रखे थे.

“धन्यवाद” इतना कह कर वो प्लेटफोर्म नंबर २ की तलाश में चल पड़ा. लगभग १६ साल का लड़का, आज वो पहली बार अकेला इतनी लंबी यात्रा करने वाला  था, मन में कौतुहल तो था पर डर उस पर हावी हो चुका था, या यूँ कहें घबराहट.

सर्दियों की रात थी और ठण्ड चुभने वाली पड़ रही थी. ट्रेन को आने में अभी बहुत वक्त था कुछ घंटों का वक्त.

स्टेशन के बाहर पार्किंग जैसी कोई व्यवस्था नहीं दिख रही थी. समय भी तो काटना था , सो वह वहीँ रुक गया, एक कुली से उसने पूछा -

“ गाड़ियों की पार्किंग किधर है ?”

कुली एक गंभीर प्राणी दीखता था, फिर भी वो हँसने लगा.

“बाबु जो है सो यही है, ट्रेन ही सबकुछ है यहाँ पर, सड़क तो है ही नहीं.”

सुना था सुभाष बाबु जब अंग्रेजों को चकमा दे कर देश से बाहर जा रहे थे तो कलकत्ता से इस स्टेशन तक सड़क मार्ग से ही आये थे, और कुली कह रहा था की सड़क है ही नहीं, खैर सड़क भी अंग्रेज़ी सत्ता की तरह समाप्त हो गयी हो.

तब इस का नाम कुछ और हुआ करता था, आज स्टेशन का नाम सुभाष बाबु के नाम से ही है.

१९९२ में साउथ अफ्रीका में अफ्रीकन नेशनल कोंग्रेस की जब सरकार बनी तो उन्होंने पीटर- र्मारित्ज्बर्ग स्टेशन का नाम महात्मा गाँधी के नाम पर रख दिया.

तब की देसी सरकार को लगा वो अफ्रीकन नेशनल कोंग्रेस और हम इंडियन नेशनल कोंग्रेस , हमें भी कुछ करना चाहिए.

 

एक लंबा करीब २० फुट ऊंचा खम्भा था जिस पर एक एडिसन बल्ब जल रहा था, खैर वो एडिसन का ही ज़माना था, बल्ब की रौशनी ने एक छोटा सा घेरा बना रखा था, इस घेरे के बाहर घुप्प अँधेरा.

प्लेटफोर्म नंबर १ और २ को जाने के लिए सीढियां थी, जी हाँ, आम तौर पर प्लेटफोर्म नंबर १ प्रवेश द्वार से लगा हुआ होता है, पर यहाँ?

यहाँ प्रवेश सीढ़ी थी  यानि पैदल पार पथ.

सीढ़ी भी अंग्रेजों के ज़माने की बनी हुई लग रही थी, शायद सुभाष बाबु ने भी इसका इस्तेमाल किया हो.

शायद ये भारत का या विश्व का एक मात्र रेलवे स्टेशन हो जिसकी टिकट-खिड़की प्लेटफोर्म पर जाने वाली सीढ़ियों (पैदल पार पथ) पर ही बनी हुई है, कुछ तो बात रही होगी नहीं तो सुभाष बाबु ने इस स्टेशन का चुनाव ऐसे ही थोड़ी ना कर लिया होगा.

अब उसे ज्ञात हुआ की स्टेशन पर दो ही प्लेटफोर्म थे, रात के ग्यारह बजने वाले थे और  स्टेशन के बाहर रहना सुरक्षित नहीं था, सो वो सीढ़ियों से होते हुए प्लेटफोर्म नंबर २ की तरफ चल पड़ा.

लेकिन स्टेशन के अंदर प्लेटफोर्म पर भी कोई इंसान नहीं दिख रहा था, ऑफिस में शायद कुछ लोग थे लेकिन ठण्ड की वजह से खिड़कियाँ और दरवाज़े बंद कर रखे थे.

एक बंद कमरे के बाहर उसने बोर्ड देखा “भोजनालय”

बाहर कोई भी ऐसा नहीं था जिस से कुछ पूछा जा सके.

वो एक बेंच पर बैठ गया, अब भी बहुत लंबा इन्तज़ार था दून एक्सप्रेस के लिए.

बैठ जाने पर ठण्ड कुछ ज्यादा जान पड़ रही थी, गर्म कपड़ों को भेदती हुई हड्डियों तक हमला कर रही थी.

तभी प्लेटफोर्म पर कुछ हलचल सी हुई इक्का दुक्का यात्री प्लेटफोर्म न. २ पर आ कर खड़े थे.

उन में से एक अधेड़ उम्र के सज्जन ने उस से पूछा “ कालका मेल इसी पर आयेगी ना ?”

उस ने सर हिला कर अपनी अनभिज्ञता ज़ाहिर कर दी.

“ तुम कौन सी ट्रेन का इंतज़ार कर रहे हो ?”

“दून एक्सप्रेस” उस ने छोटा सा जवाब दिया.

उन सज्जन ने बुरा सा मुँह बनाया मानो कालका मेल के सिवा बाकी ट्रेनों का इंतज़ार करना कोई गुनाह हो.

खैर कालका मेल के आने की घोषणा प्लेटफोर्म पर होने लगी, और थोड़ी देर में कालका मेल प्लेटफोर्म न. २ पर खड़ी हुई.

सज्जन भी अपना बेढंगा सा सूटकेस ले कर उस पर सवार हुए, कालका मेल यहाँ सिर्फ २ मिनट रूकती थी, गार्ड ने हरी बत्ती दिखा कर ड्राईवर को इशारा कर दिया था और गाडी खिसकने लगी, तभी वो सज्जन फिर से एक डब्बे के दरवाज़े पर दिखे और जैसे तैसे ट्रेन से लगभग कूद कर उतर गए.

वो भी हैरत में पड़ गया, ऐसा क्या हो गया ?

उन सज्जन के पास पहुँच कर उसने पूछा “ क्या हो गया सर ?”

सज्जन हाँफ रहे थे इस कडाके की ठण्ड में भी पसीने की दो चार बूँदें उनके माथे पे दिख रही थीं.

उनके मुँह से दबे स्वर में गालियाँ निकल रही थीं.

“ अरे ये कालका मेल कल वाली थी, २४ घंटे लेट, आज वाली इसके पीछे आ रही है.”

तभी प्लेटफोर्म पर कालका मेल के आने की पुनः उद्घोषणा हुई.
 

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