Wednesday, 7 March 2018

The Gift of the Magi - ज्ञानियों का उपहार Original Story O'Henry


एक डॉलर और सत्तासी सेंट्स. बस . और इनमे से भी साठ सेंट्स छोटे सिक्कों में थे. एक एक दो दो कर के बचाए हुए, किराना दुकान वाले से सब्जी वाले से लड़ झगड़ कर बचाए हुए, गालों को सुर्ख कर देने वाली मित्वयिता. डेल्ला ने पैसे एक दो तीन बार गिने पर हर बार ये एक डॉलर सत्तासी सेंट्स ही रहे.

..................... और कल क्रिसमस है.

अब करने के लिए कुछ नहीं है सिवाय उस टूटे फूटे दीवान पर बैठ कर चिल्लाने के. और डेल्ला ने यही किया.

...... एक आम इंसान का जीवन सिसकियों और मुस्कुराहटों का जोड़ है, जिसमे सिसकियों की ही बहुतायत है.

पर अब घर की मालकिन जो शनैः शनैः पहले (सिसकियों) के पड़ाव से दूसरे की और अग्रसर है, अपने घर को गौर से देखती है, आठ डॉलर दर हफ्ते किराए का घर. वैसे तो ये घर किसी गरीबखाने जैसा भी नहीं था, पर गरीबी की झलक हर इक चीज़ के पीछे से मिल ही जा रही थी.

देहलीज़ पर एक लैटर बॉक्स ( पत्र पेटी ) था जिसमे कोई चिट्ठी अन्दर नहीं डाली जा सकती थी, घंटी बजाने के लिए एक बटन था जिस से कोई जीवित इंसान घंटी को बजने के लिए प्रेरित नहीं कर पाता था. और एक चीज़ थी एक तख्ती जिस पर घर के मालिक का नाम लिखा था – श्री जेम्स डील्लिन्घम यंग.

नाम का “डील्लिन्घम” वाला हिस्सा पिछली एक खुशहाली के दौर में तेज़ हवाओं को प्यारा हो गया था. पर जब भी श्री जेम्स डील्लिन्घम यंग घर पहुँचते तो ऊपर से उन्हें “जिम” पुकारा जाता और फिर श्रीमती जेम्स डील्लिन्घम यंग का पुर जोश आलिंगन, श्रीमती जेम्स डील्लिन्घम यंग – अरे हाँ वही .... डेल्ला .

अब डेल्ला काफी रो चुकी थी, सामने खिड़की के पास खड़ी हो कर एक सफ़ेद स्याह बिल्ली को देख रही थी जो एक सफ़ेद स्याह दीवार पर चल रही थी जिसके पीछे का परीपेख्श भी सफ़ेद स्याह ही था.

और कल क्रिसमस, और उसके पास सिर्फ एक डॉलर सत्तासी सेंट्स, जिस से उसे जिम के लिए एक उपहार लेना होगा. महीनों से उसने एक एक दो दो कर के पैसे बचाए थे और परिणाम ........ एक डॉलर सत्तासी सेंट्स. बीस डॉलर की आमदनी में ज्यादा कुछ किया भी नहीं जा सकता है. खर्चे उसके अनुमान से ज्यादा ही रहे, जैसा की हमेशा ही होता है. कितनी तैय्यारी की जिम के लिए कुछ अच्छा सा उपहार लेना है, ऐसा कुछ जो उसके काबिल हो, जो जिम का हो सकने के सम्मान के काबिल हो.

अचानक वो तेज़ी से घूमी आँखों में एक नयी चमक और अपने पीछे बंधे हुए बाल खोले और अपनी पूरी लम्बाई तक गिरने दिया.

बताते चलें की “यंग” दंपत्ति के पास दो ऐसे धरोहर थे जिन पर उन्हें नाज़ था. एक जिम की सोने की घडी, जो इस से पहले उस के पिताजी की थी और उस से भी पहले उसके दादाजी की. और दूसरी धरोहर- डेल्ला के बाल. बाल ऐसे की जिसके सामने शीबा की रानी के सारे आभूषण फीके पड़ें. और यदि राजा सोलोमन भी जिम की घडी देखता तो ईर्ष्या से अपनी दाढ़ी खींचता.

अब डेल्ला के खूबसूरत बाल एक भूरे सुनहले जल प्रपात जैसे लगभग घुटनों तक, जैसे अपने आप में एक आवरण हों. फिर उसने बालों को वापस बाँध दिया, थोड़ी देर के लिए ठिठकी, इस दरमियान कालीन पर आंसू की दो एक बूँद टपक पड़ी.

उसने अपना भूरे रंग का कोट पहना साथ में भूरे रंग का हैट और तेज़ी से सीढियां उतरती सड़क पर ....

उसके कदम अपने आप एक जगह रुक गए... “ मैडम सोफ्फरोनी- बालों से निर्मित सब कुछ” सीढियां चढ़ती हुई डेल्ला ऊपर पहुंची हांफती हुई. मैडम – विशाल, बर्फ सी सफ़ेद, ठंडी, सोफ्फरोनी जैसी तो कुछ नहीं.

“ क्या आप मेरे बाल खरीदेंगी?” डेल्ला ने पूछा.

“ मैं बाल खरीदती हूँ” मैडम ने कहा, “ अपना हैट उतारो और देखने दो मुझे.”

भूरे बाल इठलाते हुए नीचे गिर आये.

“ बीस डॉलर” मैडम ने कहा.

“ लाओ जल्दी.”

अगले दो घंटे तो बस यूँ ही निकल गए. इस दूकान से उस दूकान जिम के लिए उपहार तलाशने में.

आखिर मिल ही गया.. जैसे जिम के लिए ही बनाया गया था ... घडी की चेन प्लैटिनम की ...एक नज़र में ही उसे लगा की ये जिम के लिए ही है. उसकी घडी के लिए उपयुक्त भी. ये थी भी उस की ही तरह शांत और मूल्यवान. उन्होंने डेल्ला से इस के इक्कीस डॉलर लिए, और वो बाकी बचे सत्तासी सेंट्स लिए वापस घर को चली. जिम की घडी पे ये चेन कितनी जंचेगी वो सोच रही थी, अभी वो चोरी चुपके समय देखता है, क्यूंकि चेन की जगह एक चमड़े की पट्टी है.

डेल्ला जब घर पहुंची तो उसकी मदहोशी धीरे धीरे घट चुकी थी और सच से सामना होने लगा था, अपने बालों को छिपाने की जहद में लग गयी.

“ अगर जिम ने मुझे मार नहीं डाला तो वो यही कहेगा की मैं किसी वाद्य वृन्द की गायिका जैसी दिखती हूँ” डेल्ला ने सोचा. “पर एक डॉलर सत्तासी सेंट्स से मैं करती भी क्या."

सात बजे तक कॉफ़ी तैयार हो चुकी थी और चॉप बनाने के लिए कडाही भी गर्म थी.

जिम वक़्त का पाबन्द था, डेल्ला दरवाज़े के पास आ कर बैठ गयी. फिर सीढ़ियों पर क़दमों की आहट हुई, थोड़ी देर के लिए डेल्ला का चेहरा सफेद पड गया. “ हे प्रभु ऐसा कुछ करें की मैं उसे अब भी खूबसूरत दिखूं.”

दरवाज़ा खुला जिम अन्दर आया और उसने दरवाज़ा वापस बंद कर दिया.

वो बहुत दुबला और गंभीर दिख रहा था. बेचारा बाईस की उम्र में गृहस्ती के बोझ तले दबा हुआ. उसका ओवर कोट बदले जाने की गुजारिश कर रहा था, और इतनी ठण्ड में हाथ बगैर दस्तानों के थे.

जिम अन्दर आया और आते ही रुक गया बेहिस्स... जैसे कोई शिकारी अपने शिकार को देख कर हो जाता है. उसकी आँखें डेल्ला पर टिकी हुई थीं, और उनमे एक ऐसा भाव जो डेल्ला पढ़ नहीं पा रही थी, और इस वजह से मन में कुछ डर था. ये गुस्सा था, या आश्चर्य, या सदमा, नहीं इनमे से कुछ भी नहीं, ऐसा कुछ नहीं जिसके लिए वो तैयार बैठी थी, वो बस देखे जा रहा था, चेहरे पे एक विचित्र भाव लिए.

“ मेरे प्यारे जिम “, डेल्ला ने कहा “ ऐसे मत देखो मुझे. मैंने अपने बाल कटवा कर बेच डाले, क्योंकि मैं क्रिसमस पर तुम्हें उपहार दिए बिन रह नहीं सकती थी, बालों का क्या है फिर बढ़ जायेंगे, वैसे भी मेरे बाल तेज़ी से बढ़ते हैं, बोलो 'मेर्री क्रिसमस जिम', और देखो मैं तुम्हारे लिए क्या उपहार ले कर आई हूँ.”

“ बाल कटवा कर बेच दिए?” जिम ने पूछा मानो अब तक उसे यक़ीन नहीं हुआ था.

“ हाँ कटवा कर बेच भी दिए.” देल्ला ने कहा.

जिम कमरे में इधर उधर देख रहा था मानो उसकी नज़रें कुछ ढूंढ रही थी.

“ तो तुम कह रहे हो की तुम्हारे बाल अब नहीं रहे?” उसने एक मूर्खतापूर्ण प्रश्न किया.

“ उसे ढूँढने की ज़रुरत नहीं, कहा न बिक गए, आज क्रिसमस की पूर्व संध्या है और वो तुम्हारे लिए ही गए हैं, मैं अपने सर के बालों को तो गिन सकती हूँ पर तुम्हारे लिए अपने प्यार को नहीं. क्या मैं तुम्हारे लिए चॉप बना दूं?” डेल्ला ने पूछा.

अब जिम की भी तन्द्रा टूटी, उसने अपनी पत्नी को बाहों में भर लिया.

(..... आठ डॉलर की आमदनी हो या दस लाख की इस से क्या फर्क पड़ता है, बाइबिल में जो “मैजाई” थे वो भी उपहार लाये थे, बहुमूल्य उपहार, पर वो आपस में लेने देने के लिए नहीं, प्रभु यीशु को उनके जन्म पर देने के लिए......)

जिम ने अपने ओवर कोट की जेब से एक पैकेट निकालते हुआ कहा. “ तुम मुझे समझ नहीं पा रही हो, बालों के होने या न होने से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता, एक नज़र इस पैकेट को खोल कर देख लो फिर तुम समझ जाओगे की मैं इतनी देर से मूर्खों सा व्यवहार क्यों कर रहा हूँ.”

पतले पतले सफ़ेद हाथों ने तेज़ी से रस्सी और कागज़ को नोच कर हटा दिया – और फिर एक चीख ख़ुशी की, फिर तुरंत आँसुओं में तब्दील हो गयी, जिसकी वजह से गृहस्वामी को अपनी सारी शक्ति लगानी पड़ी शांति बनाने में.

सामने कंघों का एक खूबसूरत सेट पड़ा था, वो सेट जो डेल्ला को कब से लुभा रहा था, ये जानते हुए भी की ये उस के नहीं हो सकते, और अब ये सामने पड़े हैं, लेकिन जिन बालों को इनकी ज़रुरत थी वो तो जा चुके थे.

पर फिर भी उसने उन कंघों को समेटा और कहा “ मेरे बाल बहुत तेज़ी से बढ़ते हैं जिम!”

फिर जैसे अचानक याद आया वो तेज़ी से लपकी और अपने खुले हाथ में जिम का उपहार ले आई, कीमती धातु चमक रही थी.

“ अच्छी है न? पूरे शहर में ढूँढने के बाद ये मिली मुझे. अब तुम दिन में कई बार समय देखोगे, लाओ अपनी घडी मुझे दो देखूं इसके साथ कैसी दिखती है.” डेल्ला ने कहा.

“ डैल,” जिम ने कहा “ हम अपने उपहार फिलहाल हटा देते हैं वर्तमान में इस्तेमाल करने के लिए ये कुछ ज्यादा ही अच्छे हैं. मैंने अपनी घडी बेच कर ये कंघों का सेट खरीदा, चलो अब ये अच्छा रहेगा की तुम झटपट चॉप बनाओ.”

जो “मैजाई” थे जैसा की विदित है ज्ञानी थे, अत्यंत ज्ञानी, जो चरनी में जन्मे बच्चे के लिए उपहार लाये थे. इन्होने ने ही क्रिसमस में उपहार देने की रवायत डाली थी. अब ज्ञानी थे तो इनके उपहार भी ज्ञानियों जैसे ही थे, जो अदले बदले जा सकें. और यहाँ दो नादान बच्चे जिन्होंने अपनी नादानी में अपनी सबसे कीमती चीज़ें बलिदान कर दीं. पर एक आखिरी शब्द आज के युग के ज्ञानियों के लिए – जितने भी लोग उपहार देते हैं उन में ये दो सबसे ज्यादा ज्ञानी. जितने भी लोग उपहार लेते हैं उन में भी ये दो सबसे ज्यादा ज्ञानी, हर जगह सर्वश्रेष्ठ. क्योंकि यही हैं ....... “मैजाई”

 

 

 

Magi (pl), singular Magus, also called Wise Men, in Christian tradition, the noble pilgrims “from the East” who followed a miraculous guiding star to Bethlehem, where they paid homage to the infant Jesus as king of the Jews (Matthew 2:1–12). Christian theological tradition has always stressed that Gentiles as well as Jews came to worship Jesus—an event celebrated in the Eastern church at Christmas and in the West at Epiphany (January 6). Eastern tradition sets the number of Magi at 12, but Western tradition sets their number at three, probably based on the three gifts of “gold, frankincense, and myrrh” (Matthew 2:11) presented to the infant

 

Thursday, 22 February 2018

कुल्हाड़ी की खीर

जंगल में लकड़ी काटते काटते काफी देर हो गयी. अब लकड़ हारे को घर लौटना मुश्किल जान पड़ता था.
 रात अँधेरी थी, जंगली जानवरों का भी डर था, जंगल से बाहर निकलना मुश्किल था. लकड़ हारा काफी उलझन में था, रात कैसे कटेगी?
 इतने में उसे दूर एक टिम-टिमाती रौशनी दिखाई दी. पास पहुँच कर लकड़ हारे ने देखा की एक झोपडी थी. दरवाज़े तक पहुँच कर उसने जोर से आवाज़ दी, बार बार आवाज़ देने पर एक बुढ़िया निकल कर आई और बड़ी बेरुखी से पूछा- क्या है?
 लकड़ हारा- माई जंगल में भटक गया हूँ, सुबह तक सर छिपाने के लिए जगह चाहिए.
 बुढ़िया- जगह तो मिल जायेगी पर खाने के लिए कुछ भी नहीं मिलेगा और माँगना भी नहीं.
 लकड़-हारा- नहीं नहीं सिर्फ रात काटने के लिए जगह चाहिए.
 बुढ़िया ने उसे अन्दर आने को कहा और एक कोने में जगह बता दी जहां वो लकड़-हारा बैठ गया.
 झोपडी में एक छोटा सा चूल्हा जल रहा था, कुछ देर बाद बुढ़िया ने उस पर अपने लिए खिचड़ी पकाना शुरू कर दिया.
 लकड़-हारे को भी जोरों की भूख लगी थी, सो वो ललचाई नज़रों से उस और देखने लगा.
 बुढ़िया- मैंने पहले ही कहा था की खाने के लिए कुछ नही मिलेगा.
 लकड़-हारा- नहीं नहीं मैं कुछ नहीं मांगूंगा.
 थोड़ी देर में बुढ़िया खिचड़ी खाने लगी और फिर सोने की तैयारी में लग गयी.
 लकड़-हारा- माई चूल्हा अगर खाली है तो मैं भी खीर बना लूं?
 बुढ़िया- खीर? मैंने कहा न की खाने के लिए कुछ नहीं मिलेगा.
 लकड़-हारा- माई कुछ नहीं मांगूंगा, कुल्हाड़ी की खीर बनाऊंगा.
 बुढ़िया- कुल्हाड़ी की खीर?
 लकड़-हारा- हाँ हाँ कुल्हाड़ी की खीर. बस एक पतीला दे दो.
 बुढ़िया ने उसे एक पतीला दे दिया और कौतूहल वश वहीँ पास में बैठ गयी.
 लकड़ हारे ने अपनी कुल्हाड़ी का लकड़ी का हत्था निकाल दिया, और लोहे वाले हिस्से को पतीले में डाल कर चूल्हे पर रख दिया.
 कुछ वक़्त बीतने के बाद बुढ़िया परेशान होने लगी.
 बुढ़िया- कब बनेगी तेरी कुल्हाड़ी की खीर? देर हो रही है, मुझे सोना भी है.
 लकड़-हारा- वैसे तो खीर ठीक ही बन रही है, लेकिन अगर तू चाहती है की जल्दी बन जाए तो थोडा सा पानी ला दे, की मैं इस पतीले में डाल दूं.
 बुढ़िया बड़े अन्मने ढंग से उठ कर पानी लाने चली गयी.
 पतीले में पानी डालने के बाद लकड़-हारा फिर वैसे ही बैठ गया.
 थोडा समय और बीता, अब बुढ़िया के सब्र का बाँध टूटने लगा.
 बुढ़िया- अब तो पानी भी डाल दिया, कब बनेगी तेरी खीर?
 लक्कड़-हारा- माई खीर तो ठीक ही बन रही है लेकिन तू अगर चाहती है जल्दी बने तो इसमें थोडा चावल डाल दे.
 बुढ़िया ने सोचा की देखती हूँ ये कैसे खीर बनाएगा, तो उसने थोडा चावल ला कर पतीले में डाल दिया.
 अब फिर दोनों पतीले के पास बैठे रहे.
 बुढ़िया परेशान होने लग गयी.
 बुढ़िया- अरे! कब बनेगी तेरी खीर?
 लकड़-हारा- वैसे तो खीर ठीक ही बन रही है, लेकिन अगर तू चाहती की जल्दी बने तो इसमें थोडा दूध डाल दे.
 बुढ़िया के पास थोडा ही दूध बचा था, सो उस ने पूरा पतीले में डाल दिया.
 अब फिर दोनों पतीले के पास बैठ गए.
 बुढ़िया को अब गुस्सा आने लगा था, उसने फिर पूछा.
 बुढ़िया- कब बनेगी तेरी खीर? अब मैं रौशनी बुझा कर सोने जा रही हूँ.
 लकड़-हारा- माई खीर ठीक ही बन रही है, लेकिन अगर तू चाहती है की और जल्दी बने तो बस थोड़ी सी चीनी ला दे फिर खीर तुरंत बन जायेगी.
 बुढ़िया ने सोचा जब सब कुछ दिया तो चीनी भी दे देती हूँ.
 लकड़-हारे ने भी एक एक कर बुढ़िया से सब कुछ ठग ही लिया, खीर भी तैयार हो गयी.
 खीर खा कर लकड़-हारा आराम से सो गया.
 बुढ़िया को रात भर नींद नहीं आयी.
 सुबह देखा तो लकड़-हारा गायब था.
 
इस कहानी में बुढ़िया और लकड़-हारा दोनों प्रतीक हैं.
 बुढ़िया प्रतीक है देश की जनता की जो अपने को बहुत बुद्धिमान समझती है लेकिन बार बार लकड़-हारे से ठगी जाती है.
 लकड़-हारा प्रतीक है यहाँ के एक मंझे हुए नेता का- कुटिल, बेईमान, बेशर्म. जो बार बार किसी न किसी रूप में किसी न किसी अवतार में आ ही जाता है जनता को ठगने,  .....................................

Saturday, 3 February 2018

The Inertia of Emotion.

         मूर्ख बनने या बनाये जाने वाले को तो पता ही नहीं चलता कि वो मूर्ख बन अथवा बनाया जा रहा है। जा़हिर है कि अगर पता ही हो तो फिर मूर्ख बने ही क्यों, आख़िर उल्लू बनना कोई अच्छी बात तो है नहीं।

फि़र एक अरसे बाद इन मूर्खों में से जो थोड़े कम मूर्ख होते हैं उन्हें एहसास होता है कि मूर्ख बनाया गया। वो इस सत्य को स्वीकार कर लेते हैं, और फ़िर अपने व्यव्हार और विचार में परिवर्तन लाने की कोशिश करते हैं.

बाकी बचे मूर्खों में से कुछ तो ऐसे होते हैं जिनका धरती पर जन्म ही मूर्ख बनने के लिये होता है। ईश्वर ने इन्हें सोचने की क्षमता तो दी है पर ये हमेशा दूसरों की सोच पर निर्भर रहते हैं। और इनकी खासियत तो यही होती है की जो इन्हें मूर्ख बनाए वही इन्हें सर्वाधिक प्रिय होता है.

सबसे बड़ा तबका उन मूर्खों का होता है जिन्हें अरसे बाद पता तो होता है कि मूर्ख बना दिये गये, पर शर्म से स्वीकार नहीं पाते या यूँ कहिये Inertia of Emotion. और यथावत मूर्ख बनते या बने रहते हैं। और इस से कहीं आगे बढ़ कर अपने मूर्ख बन्ने की वास्तविकता को अस्वीकार करने करवाने के लिए विचित्र तर्क वितर्क करते रहते हैं.

एक धूर्त राजनेता ऐसे ही व्यक्तियों का लाभ लेता है, और ये व्यक्ति समूह उसका आत्मविश्वास बढ़ाता रहता है।

Tuesday, 30 January 2018

Deja Vu


At 8:15 pm Vishesh was still in his office, seemingly the only one, apart from Om Parkas the night guard. Habitually or by inertia of rest or illusory motion, checking and re-checking his inbox for any new mail, there were none.

He rose to leave after five minutes, Om Parkas heaved a sigh of relief, he would now switch off the lights and lock the office for the day.

In the parking lot there were only a couple of cars, while his white Tata Indigo was at the farthest corner. It would be a forty five minutes drive back home, if the traffic permitted. Home included his wife Sandhya and his fourteen year old son Kushal.

The watchman at the front gate of the apartment jumped into action as he approached the entrance, he took the lift to the fifth floor and rang his door bell, Sandhya opened it and he just slumped into the sofa.

As he started to untie his shoe laces, his phone rang. It was Shukla from his office enquiring about the meeting in the afternoon that he could not attend. Sandhya tried hard to hide her irritation as she placed a tray with a glass of water and some roasted cashew. Kushal too had come out of his room at the sound of the doorbell, but he saw father busy with his phone, he returned disappointed.

Sandhya, realising that the call would go on for a while, went back to her cooking.

Shukla had taken the better of ten minutes in his chat and now he could just wash and change. After which he settled into the sofa to catch up with the news, although there was nothing new about the news, he had already seen all this on his cellphone and laptop throughout the day, but Gardhab Assami was conducting a show on Rue Public TV, a talk show, shout show rather, wherein everyone shouted out of turn with the sole objective of outshouting each other on an unshoutable subject and the leader, by a long distance, the celebrated Gardhab himself.

Kushal came out of his room once again- “ Papa you need to sign this.” He put forward his school diary along with a pen.

“What is this?” Vishesh asked, visibly irritated.

“ It’s about the parent teacher meet at the school, both of you need to attend”, Kushal said.

“ I don’t have time , there is a lot of work at office, so your mother will take you with her,” he said “ and get it signed by her, I am too tired for all this.”

He slumped into the sofa once again after dinner.

Kushal once again came out of his room and stood beside him.

Seeing him standing like this Vishesh asked “ What is it?" "Tell me.”

Kushal just stood there.

“ You want to ask for something go on ask.”

Kushal just stood there.

“ You want a new mobile phone?” He asked.

Kushal shook his head for a No.

“ You want more pocket money?” he asked.

Kushal shook his head for a No.

“ Then what?” he asked.

“ I want you to come with me to my school for the Parents meet, all my friends come along with their Mom and Dad.” Kushal said with unusual calmness.

“ I told you that’s not possible, I am totally occupied with work these days.” He  answered irritated.

“ I think you should also come along, if he insists so much, cant you take a day off for your son, you have work on all seven days of the week, shouldn’t you be giving some time to him at least?” Sandhya asked agitatedly.

“ I give him everything that he might need, what if I can’t come to school with him. And I have to work for that, otherwise where will all the luxuries come from? I don’t want an argument for now.” Vishesh said.

Kushal had already returned to his room, it seemed so much in the distant past when Papa used to come home from work and spend all the time with him. He was so sincere in his studies but today he did not feel like studying, and went off to sleep early.

Twenty years later.

Vishesh is sitting in his living room, alone, gazing out of the window, not at the skyline, the skyline is not visible anymore. He used up all his money to buy a 3 bedroom flat for himself so that he, Sandhya and Kushal could live together even after they would marry off Kushal. He had retired about five years back, Sandhya died of cancer eight years back, actually more out of boredom than cancer. Kushal was married and lived in Australia, working in the Sydney office of a US based company.

A housemaid comes every morning for the household work, she also prepares his breakfast and lunch, which he warms in the oven when required, the leftover of the lunch serves as dinner for him. There are no visitors these days.

Once Kushal had insisted that he come over and stay with him in Australia and he had to relent.

Son and daughter-in-law, who was a native Australian, used to leave early for work, and returned late evening, his two grandsons were not able to become friendly with their grandfather, and mostly kept busy among themselves even after they returned from school.

He had nothing to do all day, and now he realised how Kushal must have felt when he was too busy with his work, and even upon his return home he used to be busy in phone calls and TV.

So he returned to India, but the loneliness accompanied him here.

Communication with Kushal was by messages only.

One day he messaged him- “ Son, come home to India, you would get good jobs here too and moreover you would be among your own people and I will also get some company in my old age.”

There was no reply for three days, he knew the message was delivered and read by Kushal.
But there was a reply finally.....

“ Papa I am in a crucial phase of my career and don’t want to change my location, but you are always welcome to stay with us. You always made me do what you wanted, to study when all my friends were playing, to become an engineer, now let me do what I like to do. Moreover I send you money every month to take care of all your needs...................... ....................”

Vishesh could not read any further, tears were rolling down his eyes, he remembered the night when he had said something similar to Kushal, the night he insisted that his father accompany him to school for the Parent Teacher meet.........

Tuesday, 23 January 2018

तीन संतरे


जैसे तैसे अक्षय रेलवे स्टेशन पहुंचा, ट्रेन के हॉर्न की आवाज़ सुनाई पड़ रही थी. प्लेटफोर्म पर पहुंचा तो ट्रेन आ ही पहुंची थी, बस सबसे नज़दीक वाले कोच में चढ़ कर बैठ गया.
बैठते ही कुछ अटपटा सा लगा पर अब ट्रेन धीरे धीरे खिसकने लगी थी, पर शक़ तब यक़ीन में बदल गया जब ट्रेन एक छोटे से स्टेशन पर रुकी, वो ट्रेन से उतरा और उसने गौर से ट्रेन का नाम पढ़ा, अब उसे समझ आया क्या अटपटा था, वो हटिया गोरखपुर एक्सप्रेस की बजाये हटिया धनबाद पैसेंजेर पर सवार हो गया था.
ट्रेन अनमने ढंग से चलती थी और ख़ुशी ख़ुशी रुक जाती थी. पैसेंजेर ट्रेन का जीवन मानो रफ़्तार में नहीं ठहराव में हो जैसे.
अगले स्टेशन पर ट्रेन जैसे ही ख़ुशी ख़ुशी रुकी, झट एक लड़का अन्दर आ गया उसके हाथ में एक टोकरी थी संतरे बेच रहा था, संतरे भी वो की जैसे इनसे छोटे आपको शायद ही कहीं दिख जाएँ, या फिर ऐसा भी की नींबू को ही आरज़ू मिन्नत कर के संतरा बन जाने को कहा गया हो.
बगल में खिड़की वाली ओर दो बुज़ुर्ग बैठे थे, उनमे एक सीधा सादा तो दूसरा शक्ल से ही होशियार चंद दिख रहा था.
खैर शराफत अली जी ने छः संतरे लिए और अपने बैग की ज़िप खोल के उस के अन्दर रखने लगे.
होशियार चंद को रहा न गया  “ संतरा ट्रेन में खाने के लिए न लिए हैं जी, फिर बैग्वा में काहे रख रहे हैं?”
शराफत अली  “ घर के बच्चों के लिए है, देखते ही उनको उम्मीद रहती है कि दादाजी कुछ तो ज़रूर लाये होंगे.”
होशियार चंद  “ छः पोता-पोती है आपका ?”
शराफ़त अली  नहीं तीन है, दो पोता और एक पोती.
होशियार चंद  मतलब तीनों के लिए दो-दो लिए हैं?
(अक्षय अब तक इनकी अकलमंदी का क़ायल हो चुका था.)
शराफत अली- हाँ.
अब ट्रेन बे मन चलने को तैयार थी, बार बार हॉर्न बजा कर सवारियों को ललकार रही थी, कोई तो रोक ले.
जितने स्टेशनों पर ट्रेन रूकती हुई जा रही थी उन में से कई के नाम तो अक्षय ने कभी सुना ही नहीं था.
बस ये रुकने चलने का सिलसिला चल ही रहा था. एक बुज़ुर्ग सा पुरुष मूंगफली बेचता हुआ आ गया.
होशियार चंद हसरत भरी निगाह से मूंगफली की टोकरी को देख रहा था, पर शराफत अली का ध्यान कहीं और था.
और जैसा की अक्षय ने सोचा था. होशियार चंद शराफत अली से कह ही बैठा “ पांच रूपया का बादाम लीजिये न.” ( धरती के इस छोर पे मूंगफली को बादाम भी कहते हैं, अच्छी चीज़ों के कई कई नाम हुआ करते हैं.)
और शराफत अली तो जैसे अहिंसा के पुजारी थे, शब्दों की भी अहिंसा, तुरंत अपनी जेबें टटोलने लगे, कहीं से एक का कहीं से दो का सिक्का मिला के पांच रुपये मूंगफली वाले को दिए, और फिर दोनों मूंगफली खाने लगे.
शराफत अली बड़ी सावधानी से एक एक फली उठा के उसको उँगलियों से तोड़ते फिर दानों के ऊपर की गुलाबी परत को रगड़ कर हटाते तब मुंह में डालते.
वहीँ दूसरी ओर होशियार चंद ताबड़ तोड़ खाए जा रहा था, चुन ने में या साफ़ करने में बिना वक़्त गंवाए, जैसे कोई विश्व रिकॉर्ड तोड़ के ही दम लेगा.
थोड़ी देर में मूंगफली भी ट्रेन की रफ़्तार की तरह ख़त्म हुई.
बीसियों स्टेशनों पे रूकती हुई ट्रेन आगे बढ़ रही थी.
अब ये तो नहीं कहा जा सकता कि ट्रेन सरपट दौड़ रही थी हाँ ये ज़रूर है की ट्रेन की रफ़्तार देख सर पटकने को मन कर रहा था.
शराफत अली और होशियार चंद दोनों को ही बोकारो स्टेशन पर उतरना था. होशियार चंद के पास वक़्त बहुत कम रह गया था..........
होशियार चंद ने कहा “ मूंगफली नहीं खाना चाहिए था, और भूख लग गया.” जी हाँ दुनिया के इस छोर पे भूख लगता है, हम हैं हमारी भूख है अब लगता है की लगती है ये तो हम ही न बताएँगे. जब यहाँ क़ानून का राज नहीं चलता है तो व्याकरण?
शराफत अली- पर अब तो कुछ मिल नहीं रहा है, घर जा के खा लीजियेगा.
होशियार चंद  हम लोग के पास तो संतरा भी है न.
होशियार चंद की चतुराई अक्षय को चकित कर रही थी.

( “हम” शब्द का प्रयोग सुन कर अक्षय के होठ पे एक मुस्कान आ गयी. स्कूल की हिंदी पाठ्य पुस्तक में एक कहानी थी “ चचा छक्कन ने केले खरीदे” )
शराफत अली  नहीं-नहीं वो बच्चा लोग के लिए ख़रीदे हैं.
होशियार चंद- घर पहुँचते पहुँचते रात हो जाएगा, और एक एक काफी है, हम लोग  तीन संतरा खा सकते हैं.
शराफत अली खामोश हैं.
होशियार चंद  अरे निकालिए न , बहुत सोचते हैं.
भारी मन से शराफत अली बैग से तीन संतरे निकालते हैं.
होशियार चंद झटपट एक संतरा छील कर खाने लगता है.
पर शराफत अली को बच्चों के हिस्से के संतरे खाने की इच्छा नहीं है, वो चुप चाप बैठे हैं.

शराफत अली ने महसूस किया की अगर उन्होंने संतरा नहीं उठाया तो ये तीनों हजम कर देगा, इसलिए बे मन उन्होंने एक उठा लिया और धीरे धीरे खाने लगे.
होशियार चंद- बहुत मीठा संतरा है, पर इतना छोटा, दो से मन नहीं भरा और निकालिए, रात में कोई खायेगा नहीं और सुबह तक इतना स्वादिष्ट थोड़े ही रहेगा.
होशियार चंद मानव मनोविज्ञान में सिगमंड फ़्रोइड का भी बाप लग रहा था.
लगातार दबाव बने रहने पे थक के शराफत अली ने बाकी के तीन संतरे भी बैग से निकाले और सीट पर रख दिए, चेहरे पे गुस्सा साफ़ दिख रहा था पर होशियार चंद संतरे को देखे या इनके चेहरे को.
और बात-बात में उसने बाकी के संतरे भी “देख” लिए.
शराफत अली अब गुस्साए दिखने की बजाये दुखी नज़र आ रहे थे.
लेकिन होशियार चंद तो अपने मनोरथ को सिद्ध कर चुका था.
ट्रेन भी अब बोकारो स्टेशन में प्रवेश कर चुकी थी, दोनों उतरने के लिए खड़े हुए पर शराफत अली के व्यव्हार में तल्खी स्पष्ट नज़र आ रही थी.

Moral of the story:  Some stories like some people, are without morals.

Monday, 7 November 2016

जब मौज़र में एक आखिरी गोली बच गयी थी.........................................


ऑफिस जाते वक़्त जब वो शहर की मुख्य सड़क से गुज़र रहा था , उस ने अपनी बायीं और कुछ देखा, उसकी नज़रें कुछ देर वहीँ ठहर गयीं.

कल किसी ने आत्महत्या कर की थी, टेलीविज़न पर कल से ही ये खबर छाई हुई है, और आज अखबारों में.

किसी की नज़र में आत्महत्या बुजदिली है, कायरता है, कह तो ऐसे रहे हैं जैसे इन्होंने कितनी दफा आत्महत्या कर डाली हो. चंद्रशेखर आज़ाद, हिटलर शायद बुजदिल ही रहे हों. जब मौज़र में एक आखिरी गोली बच गयी थी तब आज़ाद को कायरता से अपने आप को गोली नहीं मारनी थी, बल्कि उन्हें तो बहादुरी से आत्मसमर्पण करना चाहिए था.

सड़क के बायीं ओर कचरे का अम्बार लगा हुआ है, दो गायें, सात-आठ कुत्ते और एक वृद्ध मनुष्य सा दिखने वाला प्राणी सब के सब इस कचरे के ढेर से कुछ न कुछ खा रहे हैं.

सबसे पहले तो शहर के बीचोबीच कचरे का इतना बड़ा अम्बार अपने आप में एक हैरत की बात है, उस से भी बड़ी हैरत की बात है की ७० वर्षों की कल्याणकारी सरकार के बावजूद एक मनुष्य को जानवरों के साथ स्पर्धा कर कचरे में से खाने को ढूंढ कर खाना पड़ रहा है.

वो भी महसूस कर रहा है अब अपनी गाडी में बैठे की टीवी वाले सही कह रहे थे असली हिम्मत तो ये है, जानवरों से भी बदतर ज़िन्दगी जीने में.

जिसका जीवन भोग विलास में कट रहा हो वो मरना नहीं चाहता, ये बात तो समझ आती है, पर जानवरों सी ज़िन्दगी गुज़र करता एक वृद्ध भी मरना नहीं चाहता, ये बात कुछ समझ नहीं आती. शायद बुजदिलों वाले काम करने से डरता हो.

बात अब साबित हो गयी आत्महत्या कायरता एवं बुजदिली है, लेकिन अच्छी बात ये है की कुल जनसंख्या का एक बेहद छोटा हिस्सा ही बुजदिल या कायर होता है, बाकी सब बहादुर हैं, उस वृद्ध की तरह.

लेकिन ये क्या उस के मन में फिर से संदेह पैदा हो गया. आत्महत्या बुजदिली है या कायरता है, ये तो यकीन से वही बता सकता है जिसने इसका सफल प्रयास किया हो.

चलो ढूंढते हैं एक ऐसा शख्स.

Tuesday, 2 August 2016

A class apart

The new English teacher walked into the class. The noise that existed died it's death, a slow death. The girls and boys who were everywhere except their prescribed places, grudgingly moved towards their respective seats. And order was restored, class IX A was finally in order. 
The new teacher appeared a nondescript kind of object, of medium build, bespectacled, dressed ordinarily but neatly. 
The teacher introduced himself first and waxed eloquent on how he would change the behavior of the class, how he had sorted out all kinds of indiscipline in his previous assignment. If his veiled threats were having any effect on the class, it wasn't visible, thus far.
It was now the turn of the students to introduce themselves. Primarily three inputs- name of the student, name of his/her father, and father's occupation, the last input was what the teacher actually wanted to know, it would define how he would treat a particular student. 
The teacher listened through the introductions while seated in the armchair, provided.
Now he sprang to his feet with a purposefulness that appeared new found. 
"Considering the general standards of English in our state ( Bihar)", he started, "I assume that the standards of English of this class are not what it should be. So I will start with a vocabulary test", and with that he put on his "thinking cap" and went into deep thought. 
The class waited with baited breath for the difficult and unheard of words to come out of his repertoire. The time that was being taken by the teacher to come up with the fearsome words, added to the trepidation of the students.
Thunder struck as the first word came out - SWIM ( Sweem as he pronounced it), the class went up in a chorus, " What Sir?"
"Sweem" he said again. Sinha the most restless of all was now looking right and left, the one on his right Tiwari had written SEEM, while Mazumdar on his left had written SEAM in his notebook, apparently a hangover from his cricket. 
Sinha ended up more confused, not one to let go of any opportunity to irritate a teacher, new or old, he stood up - " Sir! Could you please write down all these difficult words that you are about to test us with. "
The new teacher stared at him as if he had committed blasphemy. Very reluctantly he picked up a piece of chalk and wrote down the terrifying word SWIM, there was a roar of disapproval from all sides. 
The next word was absolute murder. This time there was no confusion as it was written in white on black, and it read  'SHOES'.